बदल रहा हर आदमी है
धरती का फटना लाज़मी है
न शर्म किसी के पास रही
न मर्यादा की भाष रही
सब अधनंगे से खड़े हुए
और भ्रस्टाचार से भरे हुए
हे इंसा इंसानियत को मार रहा
लज्जा के वस्त्र उतार रहा
बदल रहा हर आदमी है
धरती का फटना लाज़मी है
न इंसानियत की आस रही
न अक्ल किसी के पास रही
मिथ आकर्षण मे फसे हुए
भौतिकतावाद में धसे हुए
है इंसा चीख़ पुकार रहा
आपनो को खंजर मार रहा
बदल रहा हर आदमी है
धरती का फटना लाज़मी है
मानवता जिन्दा लाश हुई
आखो से असुरता झांक रही
जीवन में अँधेरा लिये हुए
मै की मदिरा को पिए हुए
नित कोई किसी को लूट रहा
आपनो से दामन छूट रहा
बदल रहा हर आदमी है
धरती का फटना लाज़मी है
न कर्मठता की आस रही
न रोटी सब के पास रही
धन वैभव के आकर्षण में
है धस्ते जाते दलदल में
मैं मैं न रहा तू तू न रहा
यह दुनिया अब अनजानी है
बदल रहा हर आदमी है
धरती का फटना लाज़मी है